Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद


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दूसरे दिन से तखमीने के अफसर ने मिल के एक कमरे में इजलास करना शुरू किया। एक मुंशी मुहल्ले के निवासियों के नाम, मकानों की हैसियत, पक्के हैं या कच्चे, पुराने हैं या नए, लम्बाई, चौड़ाई आदि की एक तालिका बनाने लगा। पटवारी और मुंशी घर-घर घूमने लगे। नायकराम मुखिया थे। उनका साथ रहना जरूरी था। इस वक्त सभी प्राणियों का भाग्य-निर्णय इसी त्रिामूर्ति के हाथों में था। नायकराम की चढ़ बनी। दलाली करने लगे। लोगों से कहते, निकलना तो पड़ेगा ही, अगर कुछ गम खाने से मुआवजा बढ़ जाए, तो हरज ही क्या है। बैठे-बिठाए, मुट्ठी गर्म होती थी, तो क्यों छोड़ते! सारांश यह कि मकानों की हैसियत का आधार वह भेंट थी, जो इस त्रिामूर्ति को चढ़ाई जाती थी। नायकराम टट्टी की आड़ से शिकार खेलते थे। यश भी कमाते थे, धन भी। भैरों का बड़ा मकान और सामने का मैदान सिमट गए,उनका क्षेत्रफल घट गया, त्रिामूर्ति की वहाँ कुछ पूजा न हुई। जगधर का छोटा-सा मकान फैल गया। त्रिामूर्ति ने उसकी भेंट से प्रसन्न होकर रस्सियाँ ढीली कर दीं, क्षेत्रफल बढ़ गया। ठाकुरदीन ने इन देवतों को प्रसन्न करने के बदले शिवजी को प्रसन्न करना ज्यादा आसान समझा। वहाँ एक लोटे जल के सिवा विशेष खर्च न था। दोनों वक्त पानी देने लगे। पर इस समय त्रिामूर्ति का दौरदौरा था, शिवजी की एक न चली। त्रिामूर्ति ने उनके छोटे, पर पक्के घर को कच्चा सिध्द किया था। बजरंगी देवतों को प्रसन्न करना क्या जाने। उन्हें नाराज ही कर चुका था, पर जमुनी ने अपनी सुबुध्दि से बिगड़ता हुआ काम बना लिया। मुंशीजी उसकी एक बछिया पर रीझ गए, उस पर दाँत लगाए। बजरंगी जानवरों को प्राण से भी प्रिय समझता था, तिनक गया। नायकराम ने कहा, बजरंगी पछताओगे। बजरंगी ने कहा, चाहे एक कौड़ी मुआवजा न मिले, पर बछिया न दूँगा। आखिर जमुनी ने, जो सौदे पटाने में बहुत कुशल थी, उसको एकांत में ले जाकर समझाया कि जानवरों के रहने का कहीं ठिकाना भी है? कहाँ लिए-लिए फिरोगे? एक बछिया के देने से सौ रुपये का काम निकलता है, तो क्यों नहीं निकालते? ऐसी न-जाने कितनी बछिया पैदा होंगी, देकर सिर से बला टालो। उसके समझाने से अंत में बजरंगी भी राजी हो गया!

पंद्रह दिन तक त्रिामूर्ति का राज्य रहा। तखमीने के अफसर साहब बारह बजे घर से आते, अपने कमरे में दो-चार सिगार पीते, समाचार-पत्र पढ़ते, एक दो बजे घर चल देते। जब तालिका तैयार हो गई, तो अफसर साहब उसकी जाँच करने लगे। फिर निवासियों की बुलाहट हुई। अफसर ने सबके तखमीने पढ़-पढ़कर सुनाए। एक सिरे से धाँधली थी। भैरों ने कहा-हुजूर, चलकर हमारा घर देख लें, वह बड़ा है कि जगधर का? इनको मिले 400 रुपये और मुझे मिले 300 रुपये। इस हिसाब से मुझे 600 रुपये मिलना चाहिए।
ठाकुरदीन बिगड़ीदिल थे ही, साफ-साफ कह दिया-साहब, तखमीना किसी हिसाब से थोड़े ही बनाया गया है। जिसने मुँह मीठा कर दिया,उसकी चाँदी हो गई; जो भगवान् के भरोसे बैठा रहा, उसकी बधिया बैठ गई। अब भी आप मौके पर चलकर जाँच नहीं करते कि ठीक-ठीक तखमीना हो जाए, गरीबों के गले रेत रहे हैं।
अफसर ने बिगड़कर कहा-तुम्हारे गाँव का मुखिया तो तुम्हारी तरफ से रख लिया गया था। उसकी सलाह से तखमीना किया गया है। अब कुछ नहीं हो सकता।
ठाकुरदीन-अपने कहलानेवाले तो और लूटते हैं।
अफसर-अब कुछ नहीं हो सकता।
सूरदास की झोंपड़ी का मुआवजा 1 रुपये रक्खा गया था, नायकराम के घर के पूरे तीन हजार! लोगों ने कहा-यह है गाँव-घरवालों का हाल! ये हमारे सगे हैं, भाई का गला काटते हैं। उस पर घमंड यह कि हमें धन का लोभ नहीं। आखिर तो है पंडा ही न, जात्रिायों को ठगनेवाला! जभी तो यह हाल है। जरा-सा अख्तियार पाके आँखें फिर गईं। कहीं थानेदार होते, तो किसी को घर में रहने न देते। इसी से कहा है, गंजे के नह नहीं होते।

मिस्टर क्लार्क के बाद मि. सेनापति जिलाधीश हो गए। सरकार का धन खर्च करते काँपते थे। पैसे की जगह धोले से काम निकालते थे। डरते रहते थे कि कहीं बदनाम न हो जाऊँ। उनमें यह आत्मविश्वास न था, जो अंगरेज अफसरों में होता है। अंगरेजों पर पक्षपात का संदेह नहीं किया जा सकता, वे निर्भीक और स्वाधीन होते हैं। मि. सेनापति को संदेह हुआ कि मुआवजे बड़ी नरमी से लिखे गए हैं। उन्होंने उसकी आधी रकम काफी समझी। अब यह मिसिल प्रांतीय सरकार के पास स्वीकृति के लिए भेजी गई। वहाँ फिर उसकी जाँच होने लगी। इस तरह तीन महीने की अवधि गुजर गई, और मि. जॉन सेवक पुलिस के सुपरिंटेंडेंट, दारोगा माहिर अली और मजदूरों के साथ मुहल्ले को खाली कराने के लिए आ पहुँचे। लोगों ने कहा, अभी तो हमको रुपये नहीं मिले। जॉन सेवक ने जवाब दिया, हमें तुम्हारे रुपयों से कोई मतलब नहीं;रुपये जिससे मिलें, उससे लो। हमें तो सरकार ने 1 मई को मुहल्ला खाली करा देने का वचन दिया है, और अगर कोई कह दे कि आज 1 मई नहीं है, तो हम लौट जाएँगे। अब लोगों में बड़ी खलबली पड़ी, सरकार की क्या नीयत है? क्या मुआवजा दिए बिना ही हमें निकाल दिया जाएगा, घर का घर छोड़े और मुआवजा भी न मिले! यह तो बिना मौत मरे। रुपये मिल जाते, तो कहीं जमीन लेकर घर बनवाते, खाली हाथ कहाँ जाएँ। क्या घर में खजाना रखा हुआ है! एक तो रुपये के चार आने मिलने का हुक्म हुआ, उसका भी यह हाल! न जाने सरकार की नीयत बदल गई कि बीचवाले खाये जाते हैं।

माहिर अली ने कहा-तुम लोगों को जो कुछ कहना-सुनना है, जाकर हाकिम जिला से कहो। मकान आज खाली करा लिए जाएँगे।
बजरंगी-मकान कैसे खाली होंगे, कोई राहजनी है! जिस हाकिम का यह हुकुम है, उसी हाकिम का तो यह हुकुम भी है।
माहिर-कहता हूँ, सीधो से अपने बोरिए-बकचे लादो और चलते-फिरते नजर आओ। नाहक हमें गुस्सा क्यों दिलाते हो? कहीं मि. हंटर को आ गया जोश, तो फिर तुम्हारी खैरियत नहीं।
नायकराम-दारोगाजी, दो-चार दिन की मुहलत दे दीजिए। रुपये मिलेंगे ही, ये बेचारे क्या बुरे कहते हैं कि बिना रुपये-पैसे कहाँ भटकते फिरें।
मि. जॉन सेवक तो सुपरिंटेंडेंट को साथ लेकर मिल की सैर करने चले गए थे, वहाँ चाय-पानी का प्रबंध किया गया था, माहिर अली की हुकूमत थी। बोले-पंडाजी, ये झाँसे दूसरों को देना। यहाँ तुम्हें बहुत दिनों से देख रहे हैं और तुम्हारी नस-नस पहचानते हैं। मकान आज और आज ही खाली होंगे।
सहसा एक ओर से दो बच्चे खेलते हुए आ गए, दोनों नंगे पाँव थे, फटे हुए कपड़े पहने, पर प्रसन्न-वदन। माहिर अली को देखते ही चचा-चचा कहते हुए उसकी तरफ दौड़े। ये दोनों साबिर और नसीमा थे। कुल्सूम ने इसी मुहल्ले में एक छोटा-सा मकान एक रुपये किराए पर ले लिया था। गोदाम का मकान जॉन सेवक ने खाली करा लिया था। बेचारी इसी छोटे-से घर में पड़ी अपने मुसीबत के दिन काट रही थी। माहिर ने दोनों बच्चों को देखा, तो कुछ झेंपते हुए बोले-भाग जाओ, भाग जाओ, यहाँ क्या करने आए? दिल में शरमाए कि सब लोग कहते होंगे, ये इनके भतीजे हैं, और इतने फटेहाल, यह उनकी खबर भी नहीं लेते?
नायकराम ने दोनों बच्चों को दो-दो पैसे देकर कहा-जाओ, मिठाई खाना, ये तुम्हारे चचा नहीं हैं।
नसीमा-हूँ! चचा तो हैं, क्या मैं पहचानती नहीं?
नायकराम-चचा होते, तो तुझे गोद में न उठा लेते, मिठाइयाँ न मँगा देते? तू भूल रही है।
माहिर अली ने क्रुध्द होकर कहा-पंडाजी, तुम्हें इन फिजूल बातों से क्या मतलब? मेरे भतीजे हों या न हों, तुमसे सरोकार? तुम किसी की निज की बातों में बोलनेवाले कौन होते हो? भागो साबिर, नसीमा भाग, नहीं तो सिपाही पकड़ लेगा।
दोनों बालकों ने अविश्वासपूर्ण नेत्रों से माहिर अली को देखा और भागे। रास्ते में नसीमा ने कहा-चचा ही-जैसे तो हैं, क्यों साबिर, चचा ही हैं न?
साबिर-नहीं तो और कौन हैं?
नसीमा-तो फिर हमें भगा क्यों दिया?
साबिर-जब अब्बा थे, तब न हम लोगों को प्यार करते थे! अब तो अब्बा नहीं हैं, तब तो अब्बा ही सबको खिलाते थे।
नसीमा-अम्माँ को भी तो अब अब्बा नहीं खिलाते। वह तो हम लोगों को पहले से ज्यादा प्यार करती हैं। पहले कभी पैसे न देती थीं, अब तो पैसे भी देती हैं।
साबिर-वह तो हमारी अम्मा हैं न।
लड़के तो चले गए, इधर दारोगाजी ने सिपाहियों को हुक्म दिया-फेंक दो असबाब और मकान फौरन खाली करा लो। ये लोग लात के आदमी हैं, बातों से न मानेंगे।
दो कांस्टेबिल हुक्म पाते ही बजरंगी के घर में घुस गए, और बरतन निकाल-निकाल फेंकने लगे। बजरंगी बाहर लाल आँखें किए खड़ा ओठ चबा रहा था। जमुनी घर में इधर-उधर दौड़ती फिरती थी, कभी हाँड़ियाँ उठाकर बाहर लाती, कभी फेंके हुए बरतनों को समेटती। मुँह एक क्षण के लिए बंद न होता था-मूड़ी काटे कारखाना बनाने चले हैं, दुनिया को उजाड़कर अपना घर भरेंगे। भगवान् भी ऐसे पापियों का संहार नहीं करते, न-जाने कहाँ जाके सो गए हैं! हाय! हाय! घिसुआ की जोड़ी पटक-कर तोड़ डाली!
बजरंगी ने टूटी हुई जोड़ी उठा ली और एक सिपाही के पास जाकर बोला-जमादार, यह जोड़ी तोड़ डालने से तुम्हें क्या मिला? साबित उठा ले जाते, तो भला किसी काम तो आती! कुशल है कि लाल पगड़ी बाँधो हुए हो, नहीं तो आज...
उसके मुँह से पूरी बात भी न निकली थी कि दोनों सिपाहियों ने उस पर डंडे चलाने शुरू किए। बजरंगी से अब जब्त न हो सका, लपककर एक सिपाही की गर्दन एक हाथ से और दूसरे की गर्दन दूसरे हाथ से पकड़ ली, और इतनी जोर से दबाई कि दोनों की आँखें निकल आईं। जमुनी ने देखा, अब अनर्थ हुआ चाहता है, तो रोती हुई बजरंगी के पास जाकर बोली-तुम्हें भगवान् की कसम है, जो किसी से लड़ाई करो। छोड़ो-छोड़ो! क्यों अपनी जान से बैर कर रहे हो!
बजरंगी-तू जा बैठ। फाँसी पा जाऊँ, तो मैके चली जाना। मैं तो इन दोनों के प्राण ही लेकर छोड़ईँगा।
जमुनी-तुम्हें घीसू की कसम, तुम मेरा ही माँस खाओ, जो इन दोनों को छोड़कर यहाँ से चले न जाओ।

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